Wednesday, 24 May 2017

क्षमा करना क्यों है ज़रूरी ?

क्षमा करना क्यों है ज़रूरी ?


‘Be a human’ ये phrase आपने अपनी life में कितनी बार सुना होगा और बोला होगा, पर इसके गहरे अर्थ को समझने की कोशिश हम कितनी बार करते हैं। ‘Respect begets respect’ and ‘love begets love’ यानि ‘respect के बदले में respect और love के बदले में love ‘क्या हमेशा ऐसा ही हो ये ज़रूरी है? याद कीजिये अपने जीवन का कोई ऐसा पल जब आपने बिना ये सोचे किसी की मदद की हो कि बदले में मुझे क्या मिलेगा या इसकी मुझे क्या कीमत चुकानी पड़ेगी। ईश्वर ने इंसान को बहुतसारी अच्छाइयों और positive qualities से सजाया है। उन अच्छाइयों में एक अच्छाई है परोपकारी व्यवहार या altruistic behaviour. ये एक unselfish concern है दूसरों की सहायता करने का। हम अपनी life में लोगों की मदद कई बार करते हैं पर सोचने वाली बात ये है कि ये मदद कितनी बार बदले में कुछ न पाने की  भावना से प्रेरित होती है। न चाहते हुए भी कहीं न कहीं हमारे मन में एक expectation या उम्मीद जन्म ले लेती है कि हमे भी इस उपकार  के बदले में ज़रूर कुछ मिलेगा, कुछ नहीं तो बदले में एक thank  you की  उम्मीद तो हो ही जाती है।
तो ऐसा कौन सा उपकार है जो इस तरह  की उम्मीद या भावना से परे है? ऐसा कौन सा उपकार है जो दूसरों के लिए तो अनमोल है पर मदद देने वाले के लिए बहुत ही आसान और सस्ता… वो  उपकार है किसी को किसी की ग़लती के लिए क्षमा करना forgive करना।



किसी को किसी की भूल के लिए क्षमा करना और आत्मग्लानि से मुक्ति दिलाना एक बहुत बड़ा परोपकार है। क्षमा करने की प्रक्रिया में क्षमा करने वाला क्षमा पाने वाले से कहीं अधिक सुख पाता है। अगर सोचा जाये तो छोटी से छोटी या बड़ी से बड़ी ग़लती को कभी भी past में जा कर संवारा नहीं जा सकता, उसके लिए क्षमा से अधिक कुछ नहीं माँगा जा सकता है। अगर आप किसी की भूल को माफ़ करते हैं तो उस व्यक्ति की सहायता तो करते ही हैं साथ ही साथ स्वयं की सहायता भी करते हैं।

क्षमा  करने  के  लिए व्यक्ति को अपनी ego  से ऊपर उठ कर सोचना पड़ता है जो कि एक कठिन काम है और सिर्फ एक सहनशील व्यक्ति ही इसे कर सकता है। कभी आपने इस बात पर ध्यान दिया है कि अपनी रोज़ की ज़िन्दगी में हम कितनो को क्षमा करते हैं और कितनो से क्षमा पाते हैं।
कितना आसान है किसी से एक शब्द sorry कह कर आगे निकल जाना और बदले में अपने आप ही ये सोच लेना कि उस व्यक्ति ने हमे माफ़ भी कर दिया होगा।  क्या होता अगर हमारे माता- पिता हमारी भूलों के लिए हमें क्षमा नहीं करते? क्या हो अगर ईश्वर  हमें  हमारे अपराधों के लिए क्षमा करना छोड़ दे। इसलिए अगर हम किसी को क्षमा नहीं कर सकते तो हम ईश्वर से अपने लिए माफ़ी की उम्मीद कैसे कर सकते हैं।
 किसी महान व्यक्ति ने कहा है कि  किसी को किसी की भूल के लिए माफ़ ना करना बिल्कुल ऐसा ही है जैसे ज़हर खुद पीना और उम्मीद करना कि उसका असर दूसरे पर हो  सोचिये कि अगर क्षमा नाम का परोपकार इस दुनिया में ना हो तो कोई किसी से कभी प्रेम ही नहीं कर पायेगा… love is nothing without forgiveness and forgiveness is nothing without love.
कोई भी परोपकार करने के लिए जो सबसे पहली और आवश्यक चीज़ आपके पास होनी चाहिए वो है आपकी ख़ुशी। हर इन्सान को किसी भी काम को करने से पहले अपनी ख़ुशी पहले देखनी चाहिए। सुनने में थोड़ा अजीब लगता है न कि अपनी ख़ुशी पहले कैसे रखें जबकि हमेशा से ये ही सीखते आये हैं कि अपनी ख़ुशी का बलिदान करके भी दूसरों की ख़ुशी पहले देखनी चाहिए। सवाल ये भी उठता है कि अगर अपनी ख़ुशी पहले देखेंगे तो परोपकार कैसे करेंगे? दोनों एक दूसरे के बिल्कुल opposite हैं।
तो उत्तर ये है कि अगर आप किसी की मदद बाहरी  प्रेरणा या extrinsic motivation की वजह से कर रहे हैं तो वो परोपकार है ही नहींपरोपकार तो वो होता है जिसका स्रोत आंतरिक प्रेरणा या intrinsic motivation होता है। शायद आप ये नहीं जानते कि आप दूसरों को ख़ुशी तभी दे पाएंगे जब आप स्वयं खुश होंगे।  Sacrifice करना एक अच्छी बात है लेकिन वहीँ जहाँ sacrifice करने से आपको ख़ुशी मिल रही हो। अगर कोई अपनी ख़ुशी को बार- बार मार कर sacrifice करता है तो एक दिन वो frustration का रूप ले लेता है जिसके negative effects भी हो सकते हैं।
ये human  nature है कि अगर हम अपने जीवन से परेशान या दुखी हैं तो दूसरों के 
खुशहाल जीवन को देख कर हम सच्चे मन से उसे कभी appreciate  नहीं कर सकते। एक
 हारा हुआ इंसान कभी भी किसी जीतने वाले इंसान को सच्चे मन से बधाई नहीं दे पाता इसके पीछे उसकी कोई दुर्भावना नहीं होती बल्कि अपनी ही आत्मग्लानि होती है। इसलिए किसी का भी कल्याण करने की पहली सीढ़ी है अपने मन की ख़ुशी और संतुष्टि; और क्षमा करनेकी प्रक्रिया में भी यही  नियम लागू होता है।

एक प्रसन्न रहने वाला व्यक्ति दूसरों को अधिक देर तक अप्रसन्न नहीं देख सकता। ऐसा कहा जाता है कि जिसके पास जो होता है वही वो दूसरों को देता है। जो वस्तु आप के पास उपलब्ध ही नहीं वो आप किसी को कैसे  दे सकते है? आम के पेड़ से हमेशा आम ही प्राप्त करने की उम्मीद की जा सकती है किसी और फल की नहीं।  ये याद रखिये कि अगर आप अन्दर से positive हैं और खुश हैं तो अपने आस- पास भी positivity ही फैलायेंगे।  “idiots neither forgive nor forget, naive forgets but not forgive but a kind person forgives but never forgets” ” मूर्ख व्यक्ति ना क्षमा करते हैं न भूलते हैं, अनुभवहीन व्यक्ति भूल जाते हैं,पर क्षमा नहीं करते, लेकिन एक दयालु व्यक्ति क्षमा कर देता है पर भूलता नहीं।
इसलिए अगर अपनी रोज़ की ज़िन्दगी में आप लोगों को क्षमा करते हैं तो ये आप का अनजाने  में उनपर  किया  गया   सबसे  बड़ा  उपकार  होता  है  जिसकी  आपको  कुछ  भी  कीमत  नहीं चुकानी  पड़ती।
कहा भी गया  है
to err is human and to forgive is divine

माफ़ करना अँधेरे कमरे  में रौशनी करने जैसा होता है,  जिसकी रौशनी में माफ़ी मांगने वाला और माफ़ करने वाला दोनों एक दूसरे को और करीब से जान पाते हैं। माफ़ करके आप किसी को एक मौका देते हैं अपनी अच्छाइयों को साबित करने का। सोचिये कि अगर द्रौपदी ने अपने अपमान के लिए दुर्र्योधन को  क्षमा कर दिया होता तो शायद  महाभारत के उस युद्ध में इतना नरसंहार  हुआ होता।
क्यों कहा जाता है कि मरने वाले को हमेशा क्षमा कर देना चाहिए ? क्या सचमुच इसलिए कि उस इंसान को फिर कभी माफ़ी मांगने का मौका नहीं मिलेगा या इसलिए कि आपको फिर उसे कभी माफ़ करने का मौका नहीं मिलेगा?
तो अगर हम किसी ज़िन्दगी की सूखी ज़मीन पर माफ़ी की दो- चार बूंदों की बारिश कर पायें तो हो सकता है कि उस सूखी ज़मीन पर आशाओंऔर मुस्कुराहटों के फूल खिल उठें।
तो ज़िन्दगी में रुठिये, मनाइए, शिकवे और मोहब्बत भी कीजिये पर सुनिए….. ज़रा सा माफ़ भी कीजिये’ !!!


    KEEP SMILE  B  HAPPY 

                                                                                      

यदि आप माफ़ी चाहते हैं तो दुसरो को भी माफ करना सीखे ||

                                                                                        रवि भास्कर सिंह  


Sunday, 2 April 2017

भगवा ध्वज

                               भगवा ध्वज
लो आज ये भी जान लो...

भगवा ध्वज भारत का ऐतिहासिक एवं सांस्कृति ध्वज है। यह हिन्दुओं के महान प्रतीकों में से एक है। इसका रंग भगवा (saffron) होता है। यह त्याग, बलिदान, ज्ञान, शुद्धता एवं सेवा का प्रतीक है। यह हिंदुस्थानी संस्कृति का शास्वत सर्वमान्य प्रतीक है। हजारों हजारों सालों से भारत के शूरवीरों ने इसी भगवा ध्वज की छाया में लड़कर देश की रक्षा के लिए प्राण र न्यौछावर किये।

भगवा ध्वज, हिन्दू संस्कृति एवं धर्म का शाश्वत प्रतीक है। यही ध्वज सभी मन्दिरों, आश्रमों में लगता है। शिवाजी की सेना का यही ध्वज था; राम, कृष्ण और अर्जुन के रथों का यही ध्वज है।

भगवा ध्वज दो त्रिकोणों से मिलकर बना है जिसमें से उपर वाला त्रिकोण नीचे वाले त्रिकोण से छोटा होता है। ध्वज का भगवा रंग उगते हुए सूर्य का रंग है; आग का रंग है। उगते सूर्य का रंग और उसे ज्ञान, वीरता का प्रतीक माना गया और इसीलिए हमारे पूर्वजों ने इसे इसे प्रेरणा स्वरूप माना। ज्ञात हो तो मौलाना अबुल कलाम आजाद ने इसी भगवा ध्वज को स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय ध्वज स्वीकार करने का आग्रह किया था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भगवा ध्वज को ही अपना गुरू माना है। संघ की शाखाओं में इसी ध्वज को लगाया जाता है, इसका ही वन्दन होता है और इसी ध्वज को साक्षी मानकर सारे कार्यतैत किये जाते हैं।इस ध्वज कि रक्षा के लिये लाखों हिन्दु तैयार है।
और मैं भी क्या आप तैयार है ?

जय श्री राम

Thursday, 30 March 2017

शहरी प्रदूषण की समस्या से कैसे निपटें

शहरी प्रदूषण की समस्या से कैसे निपटें

बढ़ते प्रदूषण की समस्या से हम सब परिचित हैं। पूरा विश्व ही शहरी प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व की लगभग 80 प्रतिशत शहरी आबादी प्रदूषित हवा में सांस ले रही है। यह समस्या निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में और भी अधिक है। इन देशों की लगभग 95 प्रतिशत शहरी जनसंख्या प्रदूषण का शिकार है।भारत में भी यह समस्या विकराल होती जा रही है। इसका ठीकरा कभी उद्योगों, कभी किसानों और कभी जनता के सिर पर फोड़ दिया जाता है। परंतु वास्तव में समस्या का निदान एक-दूसरे के सिर दोष मढ़ने से नहीं होगा।

शहरों के प्रदूषण से निपटने के लिए भारत को निम्न ठोस कदम उठाने होंगे –
आज शहरों के प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण बढ़ते वाहनों को माना जा रहा है। सरकार भी इस ओर सतर्क है और लगातार वाहन कम करने के लिए कभी 15 साल से ज्यादा पुरानी डीजल कारों को बंद कर रही है, तो कभी ऑड-ईवन वाहन चला रही है। मैट्रो और बस जैसे सार्वजनिक परिवहन के साधन भी पर्याप्त मात्रा में चलाए जा चुके हैं। लेकिन कारों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ ही रही है।
भारत में स्वचालित ईंधन और वाहनों की अधिक प्रभावशाली तकनीकों को तुरंत अपनाने की आवश्यकता है। इलैक्ट्रिक मोटर कार के निर्माण और उपयोग को प्रोत्साहित करने के तरीके निकालने होंगे।
संपीड़ित प्राकृतिक गैस की वर्तमान तकनीक की सीमाएं हैं। इसे उन्नत करने की आवश्यकता है। वर्तमान के वाहनों में गैस भरने की क्षमता सीमित है। इसे बढ़ाने की जरूरत है। साथ ही सी एन जी के स्टेशन बहुत कम हैं, जिन्हें बढ़ाया जाना जरूरी है।
अधिक कार्यकुशल वाहनों को बनाने के लिए अनुसंधान एवं शोध की जरूरत होगी। जाहिर है कि शोध में जो लागत लगेगी, उसकी भरपाई जल्दी करने की कोशिश की जाएगी। इसका प्रभाव उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगा। उम्मीद की जा सकती है कि देश के लोग प्रदूषण से होने वाले नुकसान को देखते-समझते हुए महंगे परंतु प्रदूषण मुक्त वाहनों की कीमत का बोझ सहन करने में पीछे नहीं हटेंगे।
नगरों की परियोजनाएं बनाने वाले लोग आज बेहतर तकनीकों का उपयोग करके अधिक सक्षम परिवहन के साधन ढूंढ सकते हैं।
विद्युत आपूर्ति को आसान बनाना होगा। शहरों में सौर ऊर्जा का उपयोग बढ़ाया जा सकता है। जनरेटर के लिए अच्छे इंजन का प्रयोग करके प्रदूषण को कम किया जा सकता है। शहरों की परिधि पर बने ऊर्जा संयंत्र भी ईंधन के रूप में यदि पूरी तरह से गैस का प्रयोग करें,तो और अच्छा होगा।
अब शहरों की पुनर्रचना में ही कोई हल ढूंढा जा सकता है। शहरी वाहनों को कम करने के लिए कार्यस्थलों या कार्यालयों के आसपास ही आवासीय सुविधा हो, जिसे लोग साइकिल या पैदल ही नाप सकें।
प्रदूषण की चुनौती से निपटने के लिए दूरदर्शिता, सामान्य चेतना और नागरिक भागीदारी की बहुत बड़ी भूमिका हो सकती है।
पटना क्लासेज

‘इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित सुनील कांत मुंजाल के लेख पर आधारित।

Thursday, 12 January 2017

स्वामी विवेकानन्द का हिन्दुओं के नाम संदेश


तभी और केवल तब ही तुम हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो, जब इस नाम को सुनते ही तुम्हारी रगों में शक्ति की विद्युत-तंरग दौड़ जाय।
तभी और केवल तब ही तुम हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो, जब इस नाम को धारण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति- वह चाहे जिस देश का हो, वह चाहे तुम्हारी भाषा बोलता हो अथवा कोई अन्य-प्रथम मिलन में ही तुम्हारा सगे से सगा तथा प्रिय से प्रिय बन जाय ! तभी और केबल तब ही तुम हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो, जब इसको धारण करने वाले किसी भी व्यक्ति का दुःख-दर्द तुम्हारे हृदय को इस प्रकार व्याकुल कर दे मानो तुम्हारा अपना पुत्र संकट में हो ।
तभी और केवल तब ही तुम हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो, जब इस नाम को धारण करने वाला प्रत्येक व्यक्ति- वह चाहे जिस देश का हो, वह चाहे तुम्हारी भाषा बोलता हो अथवा कोई अन्य-प्रथम मिलन में ही तुम्हारा सगे से सगा तथा प्रिय से प्रिय बन जाय ! तभी और केबल तब ही तुम हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो, जब इसको धारण करने वाले किसी भी व्यक्ति का दुःख-दर्द तुम्हारे हृदय को इस प्रकार व्याकुल कर दे मानो तुम्हारा अपना पुत्र संकट में हो । तभी और केवल तब ही तुम हिन्दू कहलाने के अधिकारी हो सकोगे, जब तुम उनके लिए सब कुछ सहने को तत्पर रहोगे । उन महान्‌ गुरु गोविन्द सिंह के समान, जिन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना रक्त बहाया, रणक्षेत्र में अपने लाडले बेटों का बलिदान होते देखा, पर जिनके लिए, उन्होंने अपना तथा अपने सगे सम्बन्धियों का रक्त चढ़ाया, उनके ही द्वारा परित्यक्त होकर वह घायल सिंह कार्यक्षेत्र से चुपचाप हट गया और दक्षिण जाकर चिरनिद्रा में खो गया । किन्तु जिन्होंने कृत्घ्नतापूर्वक उनका साथ छोड़ दिया था, उनके लिए अभिशाप का एक शब्द भी उस वीर के मुंह न फूटा । यह है आदर्श उस महान्‌ गुरु का !
स्मरण रहे।
यदि तुम अपने देश का कल्याण करना चाहते हो तो तुम में प्रत्येक को गुरु गोविन्द बनना होगा । भले ही तुम्हें अपनें देशवासियों में सहस्रों दोष दिखाई दें पर ध्यान रखना कि उनमें हिन्दू रक्त है । वे तुम्हें हानि पहुंचाने के लिए सब कुछ करते हों तब भी वे प्रथम देवता हैं जिनका तुम्हें पूजन करना है । यदि उनमें से प्रत्येक तुम्हें गाली दें, तब भी तुम्हें उनके लिए स्नेह की भाषा बोलनी है और यदि वे तुम्हें धक्का देकर बाहर कर दें, तब भी तुम कहीं दूर जाकर उस शक्तिशाली सिंह-गोविन्द सिंह के समान मृत्यु की गोद में चुपचाप सो जाना । ऐसे ही व्यक्ति हिन्दू कहलाने का वास्तविक अधिकारी है, यही आदर्श हमारे सामने रहना चाहिए । आओ, हम अपने समस्त विवादों एवं आपसी कलह को समाप्त कर स्नेह की इस भव्य-धारा को सर्वत्र प्रवाहित कर दें ।


           नरेन्द्रनाथ दत्त
(विश्ववरेण्य स्वामी विवेकानन्द)

Monday, 2 January 2017

डिजीटल इंडिया को सुदृढ़ करने की जरूरत

डिजीटल इंडिया को सुदृढ़ करने की जरूरत

02 JAN 2017
सरकार ने डिजीटल इंडिया की शुरूआत तो की, लेकिन उस पर ध्यान इतना केन्द्रित नहीं किया कि यह योजना अपने लक्ष्य को पूरा कर सके। विमुद्रीकरण की घोषणा से प्रधानमंत्री ने डिजीटल लेन-देन की बात तो कही, परन्तु डिजीटल इंडिया को फिर भी याद नहीं किया। 8 नवम्बर से लेकर आज तक सरकार लगातार डिजीटल लेन-देन के बारे में बहुत कुछ कर रही है। इसे प्रोत्साहन देने के लिए कई तरह की छूट, ईनाम आदि की घोषणा कर रही है। सरकार अगर वास्तव में डिजीटल लेन-देन को बढ़ावा देना चाहती है, तो सबसे पहले उसे डिजीटल इंडिया को मजबूत बनाना होगा।डिजीटल इंडिया का जो स्वप्न देखा गया है, उसके अनुसार डिजीटल बैंकिंग के क्षेत्र में 2019 तक भारत विश्व के देशों में अग्रणी होगा।

इस स्वप्न में भारत के सभी नागरिकों को डिजीटल रूप से सशक्त करने का भी लक्ष्य रखा गया है। लेकिन धरातल के स्तर पर तथ्य कुछ और ही कहते हैं –
डिजीटल इंडिया की सफलता के लिए एक अच्छी संयोजक प्रणाली पहली आवश्यकता है। और इसको सफल बनाने के लिए पूरे देश में ऑप्टिकल फाइबर केबल का जाल बिछाना होगा। इससे लगभग5 लाख गांव जोड़े जाएंगे। सन् 2017 का यह लक्ष्य तो अभी बहुत दूर है। मार्च 2016 के लक्ष्य में एक लाख ग्राम पंचायतों को इससे जोड़ा जाना था, जिसमें से मात्र 8,000 ग्राम पंचायत ही जुड़ पाए थे। अक्टूबर 2016 तक यह संख्या बढ़कर मात्र 15,000 हो पाई है।
अगर डिजीटल इंडिया अपने निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चलता, तो अभी तक 2,00,000 गाँवों को इंटरनेट से जोड़ा जा चुका होता। साथ ही ई-एज्यूकेशन, ई-कॉमर्स और ई-बैंकिंग जैसी सेवाएं भी शुरू हो चुकी होतीं। इससे दूर-दराज के क्षेत्रों को बहुत लाभ पहुंचता। ग्राम पंचायतों में बैंकिंग संपर्क वाले लोग मिनी-बैंक शाखा की तरह काम कर रहे होते। इससे उत्तराखंड जैसे इलाकों में 20-30 कि.मी. की दूरी तय करके बैंक शाखा पहुंचने वाले लोगों की जिन्दगी बहुत आसान हो जाती।
डिजीटल इंडिया कार्यक्रम का लक्ष्य 2019 तक लगभग 10 करोड़ रोजगार उपलब्ध कराना भी है। इसमें से कुछ करोड़ का लक्ष्य तो प्राप्त कर लिया गया है। लेकिन डिजीटल इंडिया की कमजोरी के कारण विमुद्रीकरण के दौर में जिन लाखों लोगों को रोजगार से हाथ धोना पड़ा है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?
सरकार ने डिजीटल इंडिया का लक्ष्य प्राप्त किए बिना ही जिस प्रकार से भ्रष्टाचार और काले धन को खत्म करने के नाम पर विमुद्रीकरण किया है, इसे बुद्धिमानीपूर्ण कदम नहीं कहा जा सकता।

बहरहाल, डिजीटल लेन-देन से भ्रष्टाचार खत्म नहीं होने वाला है। दूसरे, मोबाइल पेमेंट को बढ़ावा देने के लिए विमुद्रीकरण करना भी आवश्यक नहीं था। सरकार को अपने डिजीटल इंडिया कार्यक्रम को इतना सशक्त बनाना होगा कि समाज अपने आप ही मुद्रारहित (Cashless) लेन-देन में सहूलियत महसूस करने लगे। बात तभी बनेगी।

‘इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित मनोज गैरोला के लेख पर आधारित।